नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित 'सैराट' इसकी रिलीज़ के तीन साल बाद कल देखी। देरी कई कारणों से हुई। लेकिन जेहन में था कि देखना ही देखना है। सबसे पहले बड़े भाईसाहब ने, फिर पता नहीं कितने लोगों ने इसे देखने की सलाह दे डाली। फिर 'धड़क' देख ली। 'धड़क' मैंने 'सैराट' ना देख पाने के फ्रस्ट्रेशन में ही देखी थी। फिर ईशान, जाह्नवी और आशुतोष राणा को देखने का भी मन था। कहानी का अंदाज़ा बिना किसी के स्पष्टतः बताए ही लग गया था। कभी 'सैराट' को स्पोइलर्स की वजह से एक्स्प्लोर नहीं करना चाहा। लेकिन आप कुछ इधर से, कुछ उधर से सुन ही लेते हैं। खैर....
तो 'सैराट' के बारे में क्या ही कहा जाए। जब करोड़ों लोगों ने इससे प्रभावित होने की बात स्वीकारी, कई परिवारों ने अपने बच्चों को इसे देखने के बाद स्वीकारा, कितने 'सैराट मैरिज ग्रुप' और ब्यूरो आज अस्तित्व में आ गए इसकी वजह से तो फिर कुछ कहना नहीं बनता। अजय-अतुल का संगीत फ़िल्म की जान है और उसका क्लाइमेक्स आपकी जान, आपके सीने से वैसे ही निकाल देता है। फ़िल्म की खोज मेरे लिए 'रिंकू राजगुरु' रही जोकि आकाश थोसर के ऊपर काफी भारी पड़ीं। 'धड़क' में मुझे ठीक उल्टा लगा। उसमें ईशान जाह्नवी से बीस नज़र आया। रिंकू तो खैर 120 नज़र आई। एकदम एक वाटर बॉडी के जैसे उनकी पर्सनालिटी जोकि स्वच्छंद नज़र आती है लेकिन फिर, जैसे कि ब्रह्मांड को छोड़कर सब कुछ सीमित है, वह भी अपने को सीमित कर लेती है। 'सैराट' का पहला हाफ आपको सपने दिखाता है, दूसरा हकीकत।
मराठी सिनेमा, बंगाली सिनेमा जैसे ही अपनी जड़ों से बंधा हुआ है। दोनों की एक बेहद समृद्धशाली परंपरा रही है। दादासाहब फाल्के जोकि एक मराठी थे, ने हिंदुस्तानी सिनेमा की नींव रखी और सत्यजीत रे से बड़ा भारतीय निर्देशक आजतक नहीं जन्मा। दो साल पहले ही नाना पाटेकर की 'नटसम्राट' मराठी में आई थी और आमिर खान ने जी खोलकर नाना साहब की प्रशंसा की। अद्भुत फ़िल्म, अद्भुत परफॉर्मेंस। उससे पहले मैंने 'उपेंद्र लिमये' अभिनीत 'जोगवा' देखी थी। फ़िल्म और उपेंद्र साहब की एक्टिंग ने हिलाकर रख दिया था।
'सैराट' की एक मेन थीम है 'क्लास एंड कास्ट डिफरेंस'। एक छोटी जाति और निम्न आय वर्ग का लड़का और एक ऊंची जाति और बेहद धनी परिवार की लड़की। यही बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा के बीच का भी अंतर है। आप अगर क्षेत्रीय सिनेमा को पसंद करना शुरू कर दें तो ज़रूर 'सैराट' द्वारा हाईलाइट की गई इस समस्या का निराकरण हो जाएगा।
बाकी 'सैराट' मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई है। उम्मीद करते हैं समय-समय पर ऐसी फिल्में आएं और आप पर हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ जाएं......
तो 'सैराट' के बारे में क्या ही कहा जाए। जब करोड़ों लोगों ने इससे प्रभावित होने की बात स्वीकारी, कई परिवारों ने अपने बच्चों को इसे देखने के बाद स्वीकारा, कितने 'सैराट मैरिज ग्रुप' और ब्यूरो आज अस्तित्व में आ गए इसकी वजह से तो फिर कुछ कहना नहीं बनता। अजय-अतुल का संगीत फ़िल्म की जान है और उसका क्लाइमेक्स आपकी जान, आपके सीने से वैसे ही निकाल देता है। फ़िल्म की खोज मेरे लिए 'रिंकू राजगुरु' रही जोकि आकाश थोसर के ऊपर काफी भारी पड़ीं। 'धड़क' में मुझे ठीक उल्टा लगा। उसमें ईशान जाह्नवी से बीस नज़र आया। रिंकू तो खैर 120 नज़र आई। एकदम एक वाटर बॉडी के जैसे उनकी पर्सनालिटी जोकि स्वच्छंद नज़र आती है लेकिन फिर, जैसे कि ब्रह्मांड को छोड़कर सब कुछ सीमित है, वह भी अपने को सीमित कर लेती है। 'सैराट' का पहला हाफ आपको सपने दिखाता है, दूसरा हकीकत।
मराठी सिनेमा, बंगाली सिनेमा जैसे ही अपनी जड़ों से बंधा हुआ है। दोनों की एक बेहद समृद्धशाली परंपरा रही है। दादासाहब फाल्के जोकि एक मराठी थे, ने हिंदुस्तानी सिनेमा की नींव रखी और सत्यजीत रे से बड़ा भारतीय निर्देशक आजतक नहीं जन्मा। दो साल पहले ही नाना पाटेकर की 'नटसम्राट' मराठी में आई थी और आमिर खान ने जी खोलकर नाना साहब की प्रशंसा की। अद्भुत फ़िल्म, अद्भुत परफॉर्मेंस। उससे पहले मैंने 'उपेंद्र लिमये' अभिनीत 'जोगवा' देखी थी। फ़िल्म और उपेंद्र साहब की एक्टिंग ने हिलाकर रख दिया था।
'सैराट' की एक मेन थीम है 'क्लास एंड कास्ट डिफरेंस'। एक छोटी जाति और निम्न आय वर्ग का लड़का और एक ऊंची जाति और बेहद धनी परिवार की लड़की। यही बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा के बीच का भी अंतर है। आप अगर क्षेत्रीय सिनेमा को पसंद करना शुरू कर दें तो ज़रूर 'सैराट' द्वारा हाईलाइट की गई इस समस्या का निराकरण हो जाएगा।
बाकी 'सैराट' मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई है। उम्मीद करते हैं समय-समय पर ऐसी फिल्में आएं और आप पर हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ जाएं......
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