MBA में हम लोगों को Maslow's hierarchy of needs के बारे में बताया गया था। उसका सार यही था कि एक बार इंसान की मूलभूत आवश्यकताऐं पूरी हो जाएं जैसे रोटी, कपड़ा और मकान तो वो खुद को पहचानने की कोशिश में लग जाता है। उसे स्ट्रेस, एंग्जायटी और बाकी परेशानियाँ होने लगती हैं यदि वो अपने को जान, पहचान नहीं पाता। अक्सर हॉलीवुड की फिल्मों में हम आपने ऐसे किरदारों को देखा हुआ है जिनके पास खूब पैसा रुपया होता है लेकिन बड़े परेशान से दिखते हैं। हमें समझ नहीं आता कि आखिर इन सबको है किस चीज़ की बेचैनी। सब कुछ तो है ही इन सबके पास। दरअसल यह एक संकट है भाइयों जो कि अब मेट्रो शहरों के लोगों को अपने देश में भी होने लगा है। Existential Crisis बोलते हैं इसे अंग्रेज़ी में। किसी मजदूर को नहीं हो सकता यह लेकिन बड़े लोग बड़े परेशान रहते हैं। कइयों को लगता है कि सब कुछ पा लिया ज़िन्दगी में, अब आगे क्या? उद्देश्य नहीं रहता उनके पास और वो सुसाइडल तक हो जाते हैं उसके बारे में सोचते सोचते। एक दो लोगों को मैं भी जानता हूँ ऐसे और बाकियों जैसे मैं भी उनको देख कर परेशान हो जाता हूँ कि भाई लोग, काहें इतना सोचते हो? देश अपना अभी भी इतना गरीब है, इसी के लिए कुछ करो। लेकिन एक नए मुझसे कहा कि दूसरों के लिए करेंगे कुछ तभी खुशी मिलेगी क्या? अब यह तो एक बहुत ही उच्च कोटि का सवाल था और मैंने आधे घंटे तक उन्हें इसका जवाब देने की कोशिश की। वो मुझसे आजकल बात नहीं करते मतलब अभी भी अपने 'अस्तित्ववादी संकट' से जूझ रहे हैं। आप भी अपने अनुभव साझा करियेगा। देश में इस संकट वाले मरीज़ और उसको दूर करने का दावा करने वाले डॉक्टर्स की संख्या बहुत बढ़ रही है आजकल।
Friendship is an aspect of life that’s not controlled by its beholders. Ideal friendships, well they are the things of past now. Many a times we have seen our parents or their parents talking about their old great friends and how amusingly they tell us about their bonding, the moments they spent together and we see a ‘priceless’ twinkle in their eyes…..that’s something which is missing from modern friendships. There are terms & phrases like ‘yaar tu to apna bhai hai’, ‘yaar tu to ghar ka aadmi hai’ which even today invoke something very beautiful inside our hearts but we all know that the feelings underneath them are ‘hollow’, they are just mere words, ‘emotionless’ and ‘impassive’. Well who am I to comment on such an indefinable ‘qualitative’ perspective? I’m one of you, those wretched creatures that are still in need of true, great friendships. Well I certainly can’t say that I haven’t got friends. I’ve got friends, plenty of them in fact, and some of them are real great. I s
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