हम सारे क्रिकेट प्रशंसक ज़िम्बाब्वे क्रिकेट के साथ 90 के दशक में एक रोमांटिक रिलेशनशिप रखते थे। उनके पास कुछ बेहतरीन खिलाड़ी तो कुछ बेहद जुझारू खिलाड़ियों की फौज थी। खेल में हार जीत लगी रहती है और वो अक्सर हारते ही थे लेकिन उनका हौसला, उनका हुनर काबिलेतारीफ था। 1992 में टेस्ट क्रिकेट की आधिकारिक सदस्यता पाने के बाद और अगले कुछ सालों के भरोसेमंद प्रदर्शन ने यह बात सबके दिमाग में डाल दी थी कि केवल दक्षिण अफ्रीका ही अब अफ्रीका महाद्वीप में क्रिकेट का इकलौता झंडाबरदार नहीं रह गया है। फिर ODI क्रिकेट में केन्या की टीम भी थी जिसने 1996 विश्व कप में विंडीज़ की बेहद मजबूत टीम को 93 पर ऑल ऑउट करके अपने प्रतिभा की बेहद शानदार झलक सबको दिखला दी थी। मैं उनके खिलाड़ियों के नाम और उनको TV पर हमेशा देखने की उत्सुकता लिए बैठा रहता था। मौरिस ओदुम्बे, थॉमस ओडोयो, स्टीव टिकोलो, रविन्दु शाह, मार्टिन सूजी और आसिफ करीम जैसे बेहतरीन खिलाड़ियों ने केन्याई क्रिकेट की बहुत सेवा की और उनका 2003 के विश्व कप का प्रदर्शन क्रिकेट प्रशंसकों को शायद ही कभी भूलेगा। हाल फिलहाल में नामीबिया की टीम काफी बहादुरी से विश्व क्रिकेट में अपनी पहचान छोड़ने का प्रयास कर रही है और अगर ICC और कुछ बड़े क्रिकेटिंग देश अपना सामंतवादी रवैया छोड़ दें तो इसी अफ्रीका से तंज़ानिया और युगांडा की टीमें भी काफी आगे बढ़ सकती हैं। लेकिन इन्हें विश्व कप केवल 10 देशों का चाहिए और विश्व में इस समय ढंग के 206 देश हैं। इनके विश्व कप की परिभाषा देख सकते हैं आप.....
खैर, आज का मुद्दा ज़िम्बाब्वे क्रिकेट से ही संबंधित है। कभी कभी क्रिकेट आपका मन बहुत दुखी कर देता है। देखिये, असमानता सभी जगह है और कम्युनिज्म एक विचारधारा के रूप में इसीलिए ज्यादे दिन नहीं टिक पाया क्योंकि सारे संसाधन सबमें बराबरी से बांटना असंभव है। फिर योग्य और अयोग्यों की भी बात होगी और एक ना एक जरूर असन्तुष्ट होगा। आज विश्व क्रिकेट में कुछ देश हैं जो कि केवल अपने मैचों के प्रसारण अधिकार ही बेचकर अगले 10 साल का राजस्व कमा लेते हैं और कुछ देश हैं जहाँ मैचों को करा पाना ही एक चुनौती है। पाकिस्तान और ज़िम्बाब्वे फिलवक्त इसी समस्या से रूबरू हैं। पाकिस्तान जहाँ आतंकवाद और अतिवाद की वजह से क्रिकेट से महरूम है तो ज़िम्बाब्वे संसाधनों की कमी के कारण। आपके पास एक समृद्ध विरासत रही है क्रिकेट की लेकिन आपकी अगली पीढ़ी उसके बारे में जान ही ना पाए तो उसके भविष्य के बारे में वो सोचेगी ही क्यों? छोटे बच्चे अपने हीरोज को खेलते अपने सामने, अपने मैदानों में देख नहीं सकते तो आखिर वो बल्ला लेकर क्रिकेट सीखना ही क्यों चाहेंगे? तातेंदा टायबू ने U-19 विश्व कप 2002 का 'प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' खिताब जीता था लेकिन बाद में ज़िम्बाब्वे क्रिकेट में फैली रंगभेद की नीतियों से परेशान होकर मात्र अगले 10 सालों में क्रिकेट को अलविदा कह दिया। आप सबने टायबू को खेलते देखा होगा। सबने बंदे की हाइट का मजाक उड़ाया होगा लेकिन आप सबने उसकी प्रतिभा को सैल्युट भी किया होगा। क्रिकेट छोड़ने के बाद वो इंग्लैंड में पादरी बन गए और बस पिछले साल ही ज़िम्बाब्वे में लौटे हैं जब उन्हें भरोसा दिलाया गया कि अब हालात कुछ बेहतर हैं। हीथ स्ट्रीक एक बेहद सम्माननीय खिलाड़ी और कोच के रूप में अभी भी ज़िम्बाब्वे क्रिकेट को अपनी सेवा दे रहे हैं। एक काला, एक गोरा बँदा। स्ट्रीक के 200 बीघे में फैले फार्म्स को मुगाबे सरकार ने बिना उनकी रज़ामंदी के हड़प लिया लेकिन वो अभी भी देश के साथ खड़े हैं। शायद यही देशभक्ति कही जाती है।
अभी ज़िम्बाब्वे की क्रिकेट टीम काफी बेहतर कर रही है। उनका पिछले साल का श्री लंका दौरा बेहद सफल रहा था और तबसे आज की दिनांक में उनके प्रदर्शन में निरंतरता दिखी है। लेकिन समस्या कहीं और आ रही है और वो बेहद गम्भीर है। फैसल हसनैन ज़िम्बाब्वे क्रिकेट के बेहद योग्य और मेहनती सीईओ हैं। पिछले 10 महीनों में उन्होंने अपना दिन रात एक किया हुआ है अपनी क्रिकेट को सही रास्ते पर लाने के लिए लेकिन उन्हें विश्व बिरादरी के सहयोग की इस समय सख्त जरूरत है। ICC एक धनलोलुप संस्था है जिसे पैसा मिलने पर ही पैसा बांटना अच्छा लगता है और उसने ज़िम्बाब्वे को आज तक इतना पैसा नहीं दिया कि वो हरारे और बुलावायो में फ्लडलाइट्स लगवा कर डे नाइट मैचेज करवा सकें। ज़िम्बाब्वे में इस समय फंड्स की कमी के कारण घरेलू क्रिकेट अस्थाई रूप से बंद है और स्थिति इतनी खराब है कि वो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट भी अब देश में नहीं करवाने की हिम्मत जुटा पा रहे। मैच अधिकारियों और खिलाड़ियों की सैलरी पिछले 6 महीनों से बंद है। इस माहौल में क्या यह विश्व बिरादरी की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो अपने कुछ 100-200 करोड़ों की आमदनी में से 10-20 करोड़ रुपये ज़िम्बाब्वे क्रिकेट को देकर सब कुछ वापिस पटरी पर लाएं? केन्याई क्रिकेट केवल इसी धन की कमी की वजह से खत्म हो गया और हालात ऐसे ही रहे तो ज़िम्बाब्वे भी केवल विजडन की मोटी किताब में ही सिमट कर रह जायेगा।
ज़िम्बाब्वे पाकिस्तान का घरेलू दौरा रद्द करने की स्थिति में है जिसमें उसे पाकिस्तान से 2 टेस्ट, 3 ODIs और 2 T-20 मैच खेलने थे। एक दूसरा प्रस्ताव ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के साथ 20-20 ओवर्स की त्रिकोणीय श्रृंखला का है जो शायद संभावना बन जाये क्योंकि T-20 में पैसा है और ऑस्ट्रेलिया उसे अपना समर्थन दे सकता है। इसके अलावा ज़िम्बाब्वे के पास अब केवल बाहरी देशों में खेलना ही एक विकल्प रह गया है क्योंकि घर में मैच कराना आर्थिक दृष्टि से उसके लिये काफी महँगा पड़ रहा है।
उम्मीद करूंगा कि जो लोग इन सब मामलात से भली भाँति परिचित हैं, वो कुछ करें इनके बारे में। कम्युनिज्म भले ही आज महत्व खो चुका है लेकिन सहकारिता की भावना अभी भी काफी महत्व रखती है।
खैर, आज का मुद्दा ज़िम्बाब्वे क्रिकेट से ही संबंधित है। कभी कभी क्रिकेट आपका मन बहुत दुखी कर देता है। देखिये, असमानता सभी जगह है और कम्युनिज्म एक विचारधारा के रूप में इसीलिए ज्यादे दिन नहीं टिक पाया क्योंकि सारे संसाधन सबमें बराबरी से बांटना असंभव है। फिर योग्य और अयोग्यों की भी बात होगी और एक ना एक जरूर असन्तुष्ट होगा। आज विश्व क्रिकेट में कुछ देश हैं जो कि केवल अपने मैचों के प्रसारण अधिकार ही बेचकर अगले 10 साल का राजस्व कमा लेते हैं और कुछ देश हैं जहाँ मैचों को करा पाना ही एक चुनौती है। पाकिस्तान और ज़िम्बाब्वे फिलवक्त इसी समस्या से रूबरू हैं। पाकिस्तान जहाँ आतंकवाद और अतिवाद की वजह से क्रिकेट से महरूम है तो ज़िम्बाब्वे संसाधनों की कमी के कारण। आपके पास एक समृद्ध विरासत रही है क्रिकेट की लेकिन आपकी अगली पीढ़ी उसके बारे में जान ही ना पाए तो उसके भविष्य के बारे में वो सोचेगी ही क्यों? छोटे बच्चे अपने हीरोज को खेलते अपने सामने, अपने मैदानों में देख नहीं सकते तो आखिर वो बल्ला लेकर क्रिकेट सीखना ही क्यों चाहेंगे? तातेंदा टायबू ने U-19 विश्व कप 2002 का 'प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' खिताब जीता था लेकिन बाद में ज़िम्बाब्वे क्रिकेट में फैली रंगभेद की नीतियों से परेशान होकर मात्र अगले 10 सालों में क्रिकेट को अलविदा कह दिया। आप सबने टायबू को खेलते देखा होगा। सबने बंदे की हाइट का मजाक उड़ाया होगा लेकिन आप सबने उसकी प्रतिभा को सैल्युट भी किया होगा। क्रिकेट छोड़ने के बाद वो इंग्लैंड में पादरी बन गए और बस पिछले साल ही ज़िम्बाब्वे में लौटे हैं जब उन्हें भरोसा दिलाया गया कि अब हालात कुछ बेहतर हैं। हीथ स्ट्रीक एक बेहद सम्माननीय खिलाड़ी और कोच के रूप में अभी भी ज़िम्बाब्वे क्रिकेट को अपनी सेवा दे रहे हैं। एक काला, एक गोरा बँदा। स्ट्रीक के 200 बीघे में फैले फार्म्स को मुगाबे सरकार ने बिना उनकी रज़ामंदी के हड़प लिया लेकिन वो अभी भी देश के साथ खड़े हैं। शायद यही देशभक्ति कही जाती है।
अभी ज़िम्बाब्वे की क्रिकेट टीम काफी बेहतर कर रही है। उनका पिछले साल का श्री लंका दौरा बेहद सफल रहा था और तबसे आज की दिनांक में उनके प्रदर्शन में निरंतरता दिखी है। लेकिन समस्या कहीं और आ रही है और वो बेहद गम्भीर है। फैसल हसनैन ज़िम्बाब्वे क्रिकेट के बेहद योग्य और मेहनती सीईओ हैं। पिछले 10 महीनों में उन्होंने अपना दिन रात एक किया हुआ है अपनी क्रिकेट को सही रास्ते पर लाने के लिए लेकिन उन्हें विश्व बिरादरी के सहयोग की इस समय सख्त जरूरत है। ICC एक धनलोलुप संस्था है जिसे पैसा मिलने पर ही पैसा बांटना अच्छा लगता है और उसने ज़िम्बाब्वे को आज तक इतना पैसा नहीं दिया कि वो हरारे और बुलावायो में फ्लडलाइट्स लगवा कर डे नाइट मैचेज करवा सकें। ज़िम्बाब्वे में इस समय फंड्स की कमी के कारण घरेलू क्रिकेट अस्थाई रूप से बंद है और स्थिति इतनी खराब है कि वो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट भी अब देश में नहीं करवाने की हिम्मत जुटा पा रहे। मैच अधिकारियों और खिलाड़ियों की सैलरी पिछले 6 महीनों से बंद है। इस माहौल में क्या यह विश्व बिरादरी की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो अपने कुछ 100-200 करोड़ों की आमदनी में से 10-20 करोड़ रुपये ज़िम्बाब्वे क्रिकेट को देकर सब कुछ वापिस पटरी पर लाएं? केन्याई क्रिकेट केवल इसी धन की कमी की वजह से खत्म हो गया और हालात ऐसे ही रहे तो ज़िम्बाब्वे भी केवल विजडन की मोटी किताब में ही सिमट कर रह जायेगा।
ज़िम्बाब्वे पाकिस्तान का घरेलू दौरा रद्द करने की स्थिति में है जिसमें उसे पाकिस्तान से 2 टेस्ट, 3 ODIs और 2 T-20 मैच खेलने थे। एक दूसरा प्रस्ताव ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के साथ 20-20 ओवर्स की त्रिकोणीय श्रृंखला का है जो शायद संभावना बन जाये क्योंकि T-20 में पैसा है और ऑस्ट्रेलिया उसे अपना समर्थन दे सकता है। इसके अलावा ज़िम्बाब्वे के पास अब केवल बाहरी देशों में खेलना ही एक विकल्प रह गया है क्योंकि घर में मैच कराना आर्थिक दृष्टि से उसके लिये काफी महँगा पड़ रहा है।
उम्मीद करूंगा कि जो लोग इन सब मामलात से भली भाँति परिचित हैं, वो कुछ करें इनके बारे में। कम्युनिज्म भले ही आज महत्व खो चुका है लेकिन सहकारिता की भावना अभी भी काफी महत्व रखती है।
Comments
Post a Comment