सन 1999-00 के करीब संजय दत्त की फ़िल्म 'खूबसूरत' आयी थी। 'वास्तव' पता नहीं पहले आ चुकी थी या बाद में लेकिन वह संजय की दूसरी/तीसरी पारी की शुरुआती फिल्मों में से एक थी। कमबैक स्टोरीज़ मुझे बचपन से ही पसंद हैं तो मैंने वह फ़िल्म भी देखी और उर्मिला मातोंडकर का पहला 'डीग्लैम' अवतार भी उसी फ़िल्म में सामने आया। फ़िल्म में संजय शायद एक ब्लफमास्टर बने हैं जहां तक मुझे याद है और परिस्थितिवश उर्मिला के घर मे प्रवेश कर जाते हैं। उर्मिला के दादाजी का रोल वरिष्ठ कलाकार अंजन श्रीवास्तव जी ने निभाया था और जब उन्हें पता चलता है कि संजय अमेरिका से आये हैं (सफेद झूठ) तो रंगीनमिजाज अंजन उन्हें अपने पास बुलाकर पूछते हैं- "बेटा, अमेरिका के बारे में कुछ बताओ। सुना है कि वहां सोसाइटी बहुत ओपन है, औरतें-लड़कियां कम/छोटे कपडें काफी पहनती हैं और 'फ्री सेक्स' जैसा भी मैंने सुन रखा है।"
आप सोच रहे होंगे कि 90 की फिल्मों में यह सब होना 'आम' था, कोई नई बात नहीं। मैं भी इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ। संजय, दादाजी की बात हंसकर टाल जाते हैं लेकिन समझ जाते हैं कि वे काफी 'रंगीनमिजाज' हैं। कहानी से आपने अमेरिका के बारे में दादाजी की अवधारणा परख ली होगी। क्या अमेरिका सच मे ऐसा है? क्या यूरोप सच मे ऐसा है? क्या एशियाई देशों को छोड़कर हर देश सेक्स को टैबू नहीं समझता? हॉलीवुड से शुरू हुए #MeToo मूवमेंट के केंद्र में सेक्स ही है और सेक्सुअल ऑब्जेक्ट प्रधानतः महिलाएं होती हैं, अतः सारी जिज्ञासाओं का केंद्रबिंदु भी वही हैं। मेरे हॉलीवुड और यूरोपियन सिनेमा के ज्ञान ने मुझे यह बताया है कि हाँ, अमेरिका, यूरोप और अन्य विकसित राष्ट्रों में नई पीढ़ी के लोग सेक्स को लेकर बहुत ज्यादा परेशान नहीं रहते। वे इसे एक 'नए शारीरिक अनुभव' के रूप में स्वीकारते हैं। उनका और उनके अभिभावकों का सारा ज़ोर 'सुरक्षित सेक्स' के ऊपर लेकिन ज़रूर रहता है। यूरोपियन और अमेरिकन हाईस्कूल की डिग्री मिलने से पहले वहां के स्कूल्स में जो 'प्रोम-नाईट' का कांसेप्ट है, वह एक तरीके से 'फर्स्ट सेक्सुअल एक्सपीरियंस' को ही प्रोत्साहित करता है और उस समय उन युवकों की उम्र 18 वर्ष से कम होती है। और चूंकि सिनेमा, एक समाज का परिचायक कहा गया है, आपको उनके खुलेपन का परिचय मिल गया होगा। ऐसा मानने का लेकिन भूल कदापि ना करें कि ईसाई धर्म इस खुलेपन का समर्थन करता है। नहीं, बिल्कुल नहीं और इसीलिए चर्चों में युवा और बुजुर्ग पादरियों द्वारा किये गए यौन अपराध आये दिन समाचार पत्रों में सुर्खियों में रहते हैं क्योंकि ये चर्च की परंपरा के खिलाफ हैं।
बिल कॉस्बी और केविन स्पेसी अमेरिकन फ़िल्म, स्टेज और फिल्मों के बहुत सम्मानित कलाकार रहे हैं। आज नहीं हैं। क्यों, क्योंकि #MeToo मूवमेंट के सबसे पहले और सबसे बड़े अपराधी यही हैं। हार्वी विंसटीन बहुत बड़े हॉलीवुड प्रोड्यूसर थे जिनके खिलाफ वर्ल्ड सिनेमा और हॉलीवुड की सभी बड़ी अभिनेत्रियों ने मोर्चे खोल दिये और उसमें से एक ने 14 साल बाद बयान दिया। मुद्दा यही है कि आखिर, 14, 20, 25, 30 वर्षों के बाद ही क्यों? उसी समय क्यों नहीं? क्या वे उस समय कमज़ोर थीं? क्या वे अभी मजबूत हैं? क्या वे पब्लिसिटी चाहती हैं? क्या उनका अपराधी अब कमज़ोर है?
नहीं। इसका उत्तर ऊपर उठाये गए सवालों में नहीं है। मैं कल अलजजीरा चैनल पर एक पैनल डिस्कशन देख रहा था जोकि नादिया मुराद और डॉक्टर डेविड मुकवेगे के नोबेल शांति पुरस्कार जीतने पर संदर्भित था। एक एक्सपर्ट आइसलैंड से थीं जोकि यौन अपराधों की शिकार हुई महिलाओं के मनोवैज्ञानिक स्थिति और स्वास्थ्य के विश्लेषण में महारत रखती थीं। उनके हवाले से मैं लिख रहा हूँ, सुनिए- "आज का समय सूचनाओं के तेज़ी से प्रसारण का है और इन सूचनाओं को देखने सुनने वाले जागरूक लोग मौजूद हैं। आज का समाज ज्यादा उदारवादी भी है। अतः नादिया जैसी महिलाएं बोलने का साहस कर पा रही है। नादिया मध्य-पूर्व एशिया से हैं, मलाला पाकिस्तान से थीं और ये देश काफी रूढ़िवादी समझे जाते हैं लेकिन जब इनकी आपबीती सामने आई तो ना केवल ये देश बल्कि पुरी दुनिया ने इनके साहस की प्रशंसा की। लोग पश्चिमी जगत के विकास की दुहाई देते हैं लेकिन वहां भी महिलाओं के अधिकारों पर आज से 20-30 वर्षों पहले उतनी ही बड़ी पाबंदी थी जितनी एक रूढ़िवादी और पिछड़े अफ्रीकी और एशियाई देश में। वे आज बोलने का साहस कर पा रही हैं और उनकी वजह से वे लोग सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये जा रहे जिन्हें महिलाएं केवल उपभोग की वस्तुएं लगती थीं।"
अब आपको तस्वीर साफ हो गयी होगी कि चाहे वो पश्चिमी जगत हो या पूर्वी, महिलाएं हर जगह एक ही दृष्टि से देखी जाती रही हैं। पिछले साल न्यूयॉर्क में एक महिला ने सड़क चलते हुए हिडेन कैमरे से एक वीडियो बनाया था जिसका उद्देश्य लोगों को न्यूयॉर्क की सड़कों पर छेड़छाड़ की घटनाओं से रूबरू करवाना था। एक घंटे के वीडियो में तकरीबन 50 लोगों ने उस युवती पर भद्दी फब्तियां कसीं।
आज उस युवती के पास कैमरा है, सोशल मीडिया है, आर्थिक आज़ादी है और तब भी उसके केवल अपनी आपबीती सुनाने पर समाज ऐसे प्रतिक्रिया दे रहा तो आज से 30-40/15-20 वर्षों पहले आप क्या उम्मीद लगा सकते थे? फिर यह भी जाना माना सत्य है कि औरतें यौन अपराधों की ज्यादा शिकार होती हैं और हर एक औरत का उससे निबटने का, उससे उबरने का एक तरीका होता है। उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता को टेस्ट करते हैं ऐसे हृदयविदारक कष्ट। आप क्यों उससे उम्मीद करते हैं कि वह आपको तुरंत उसके बारे में बताए? पुलिस का व्यवहार हर देश मे ऐसा ही है मित्रों और समाज का मैंने दिखा ही दिया। ये लोग कष्ट क्या हरेंगे, ऊपर से उसे 100 गुना और ज्यादा पीड़ा दे देंगे। पेपर्स की हेडलाइंस अब आपको याद आ रही होंगी जहां एक ऐसी ही युवती मदद की दरकार कर रही होगी और उसे दुत्कार दिया जाता है। वह आम महिला होती है, शायद उसका कोई मोल नहीं। हम सब तो चर्चित महिलाओं की बात कर रहे, उनका तो यार कुछ होना ही चाहिए।
फ़िल्म देख ली 'पिंक'। खुश हो लिए और घर आ गए। एक महिला के अपनी देह के ऊपर अधिकार के ऊपर है वह फ़िल्म जहां उसकी 'ना का मतलब ना' ही होता है और कुछ नहीं। यह #MeToo मुहिम उसी 'ना' की विश्वव्यापी गूँज है जिसे नज़रंदाज़ करना अब नामुमकिन है।
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