मैंने सैराट नहीं देखी है (हालाँकि मेरे पास दो साल से पड़ी हुई है और नाना पाटेकर साहब की नटसम्राट भी) लेकिन आज जो मैंने धड़क देखी, उससे मेरा काम चल गया। मुझे और कुछ देखना शेष नहीं रहा। ये 'नेपोटिस्म' पर विवाद करने वाले एक्टिंग या फिल्ममेकिंग का क, ख, ग जानते नहीं और आ जाते हैं भाई-भतीजावाद पर बोलने। आप दर्शक हैं, बोलिये, अपनी राय दें लेकिन कहानी पर, फ़िल्म की पेस पर नाकि एक्टिंग पर। ये स्टारकिड्स भी फ़िल्म के फ्लोर पर जाने से पहले महीनों वर्कशॉप में मेहनत करते हैं और फिर आपके सामने उनकी कला दिखती है। अनुराग कश्यप भी तो विनीत सिंह और नवाज़ुद्दीन को बहुत दिन से जानते थे लेकिन मौका 10-12 सालों बाद ही क्यों दिया। यह सब बेकार की बातें हैं और हाँ, मेरी तरफ से फ़िल्म को 10/10. अमूमन मैं हिंदी फिल्मों से नाराज़ रहता हूँ कि पहला हाफ बेहद मजबूत रहते हुए भी दूसरे हाफ में ये कमज़ोर पड़ जाती हैं। धड़क के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं था और यथार्थ दिखाया गया है। अगर आपने प्यार किया है तब तो आप इसे भूल ही नहीं पाएंगे। एक और बात, सैराट नहीं देखी है तो इसे बिल्कुल देखिये। अपने बलबूते ये टिपिकल हिंदी फिल्मों की जमात में पहले पायदान पर खड़ी रह सकती है।
और अंत मे, शेक्सपियर कॉमेडी नहीं ट्रेजेडी लिखते थे। उनकी एकलौती कॉमेडी 'ऐज यू लाइक इट' थी जिसको लिखने के बाद उन्हें उसका शीर्षक तक नहीं सूझ रहा था। ट्रेजेडी दुखांत नाटक होते हैं और चूंकि ज़िन्दगी कॉमेडी नहीं, ट्रेजेडी है, इसको आपको शीर्षक देने की जरूरत भी नहीं। धड़क एक ट्रेजेडी है, कोई मुगालता नहीं पालियेगा।
और अंत मे, शेक्सपियर कॉमेडी नहीं ट्रेजेडी लिखते थे। उनकी एकलौती कॉमेडी 'ऐज यू लाइक इट' थी जिसको लिखने के बाद उन्हें उसका शीर्षक तक नहीं सूझ रहा था। ट्रेजेडी दुखांत नाटक होते हैं और चूंकि ज़िन्दगी कॉमेडी नहीं, ट्रेजेडी है, इसको आपको शीर्षक देने की जरूरत भी नहीं। धड़क एक ट्रेजेडी है, कोई मुगालता नहीं पालियेगा।
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